Tuesday, 7 October 2025

बीआर गवई और ब्राह्मणवाद की तिलमिलाहट

जब कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही में न्यायाधीश के सामने जूता फेंकता है, तो वह सिर्फ एक अपराध नहीं है; वह एक संकेत है — एक संदेश (हालाँकि मौन) कि समाज का एक खंड इतनी आहत और आक्रोशित है कि वह संवैधानिक प्रतिष्ठा को चुनौती देने को तैयार हो गया है।

लेकिन प्रश्न यह है: यह आघात केवल उस न्यायाधीश तक सीमित है, या वह कहीं गहरे, वैचारिक, और संरचनात्मक विष से जुड़ा है? न्यायाधीश बी. आर. गवई का नाम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे वास्तव में जाति और धर्म के संदर्भ में एक चिन्ह बन चुके हैं — और इस तथ्य ने इस जघन्य घटना को और ज़्यादा प्रतीकात्मक बना दिया।

यह लेख इस प्रतीकवाद को खोलने की कोशिश है — यह दिखाने की कोशिश है कि क्यों यह सिर्फ एक अपराध नहीं था, बल्कि ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता की निरंतर क्रूरता का एक नया स्वरूप था।


घटना का संक्षिप्त विवरण और सार्वजनिक प्रतिक्रिया

  • मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, एक वरिष्ठ अधिवक्ता (राकेश किशोर) ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बी. आर. गवाई के सामने जूता फेंका। The Economic Times+2The Indian Express+2

  • आरोपी ने न तो पछतावा जताया, न माफी मांगी, और दावा किया कि उसने यह क्रिया “संवेदनाओं की क्षोभ” के कारण की। mint+3Indiatimes+3The Times of India+3

  • न्यायालय और विधि जगत ने इस घटना की तीखी निंदा की — यह कहा गया कि यह न केवल न्यायपालिका पर हमला है बल्कि लोकतंत्र एवं संविधान की गरिमा पर हमला है। The Week+4The Indian Express+4The Indian Express+4

  • राजनीतिक दलों ने इसे “न्यायपालिका की गरिमा” पर हमला और “जाति‑प्रेरित घृणा” का संकेत कहा है। The Indian Express+3The Week+3The Indian Express+3

  • कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह दर्शाता है कि जातिगत पूर्वाग्रह और मनुवादी मानसिकताएँ अब भी जीवित हैंThe Week+1

यह पर्याप्त है कि हम ये समझें: यह घटना सामान्य “आक्रोश” नहीं थी। यह प्रतीकात्मक संघर्ष था — एक संघर्ष उस सत्ता से, उस हक से जो समाज के निचले तबकों को अवश्य मिला ही नहीं है।


जातिवाद, ब्राह्मणवाद और सत्ता का संयोजन

इस घटना की पृष्ठभूमि में हमें देखनी होगी कि क्यों किसी को यह विश्वास हो गया कि वह न्यायालय की सबसे ऊँची सीट पर बैठे व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपमानित कर सकता है — और समाज का एक अंश इस हिंसा को (मुठभेड़, निशाट करना या खोलकर समर्थन देना) मानने को तैयार था।

1. ब्राह्मणवाद और “उच्चता” की भावना

ब्राह्मणवादी सोच ने भारतीय समाज में उच्चता‑अधिकार की एक संरचना बनाई है: ऊँची जातियों को “आध्यात्मिक श्रेष्ठता”, “शुद्धता”, “सभ्यता” का अधिकार। इस अधिकार को बनाए रखने के लिए हिंसा, आक्षेप, और अपमान का प्रयोग सदियों से जारी रहा है।

जब कोई दलित व्यक्ति न्यायपालिका जैसी ऊँची संस्था की ऊँची पदवी पर पहुंचता है, तो ब्राह्मणवादी मानसिकता की असुरक्षा सामने आ जाती है। यह “अयोग्यता” का घोंटना, “हाशिए” को चुप कराने का प्रयास — और जब ऐसा प्रयास सफल न हो, तो प्रतिरोध हिंसात्मक रूप ले लेता है।

यह हिंसा केवल एक जूते का फेंकना नहीं था; वह एक संस्था-उपरी अल्पसंख्यक व्यक्ति को यह बताने की कोशिश थी: “तुम हमारे शहर से बाहर हो।” यह चेतावनी थी कि “हमारी अनदेखी नहीं होगी।” यह चेतावनी थी कि “तुम अपनी जगह जानो।”

2. प्रतीकात्मक अपमान और उसका अर्थ

जूता फेंकना भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में गहरा अपमान माना जाता है। यह न केवल व्यक्तिगत अपमान है, बल्कि पुरानी प्रथाओं में यह धार्मिक या सामाजिक अपशकुन का संकेत माना गया है। जब यह कार्रवाई एक न्यायाधीश के सामने की जाती है, तो उसकी प्रतीकशक्ति दोगुनी हो जाती है:

  • यह दिखाती है कि अपराधी न्यायाधिकरण को “मानव” ही मानता है — उससे ऊपर नहीं, नहीं कि वह अछूत हो।

  • यह बताती है कि न्यायपालिका को “सम्मान” नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि उसे डराया या चुनौती दी जा सकती है — उन लोगों द्वारा, जो मानते हैं कि उपरी सत्ता का अधिकार उन्हें प्राप्त है।

  • यह एक सार्वजनिक प्रदर्शन था: “देखो, हम तुम्हें अपमान कर सकते हैं।” यह जाति-प्रेरित अपमान था, निहित नस्लवाद का एक विस्तार।

3. दास-स्वामी मनोवृत्ति और “निचले स्थान” की स्थापित भूमिका

ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भारतीय जीवन को “ऊँचा” और “नीचा” विभाजित किया — और साथ ही उन विभाजनों को न्यायसंगत ठहराने वाले तर्कों का समूह तैयार किया। “शुद्ध-अशुद्ध”, “पुरोहित-अन्य”, “ज्ञान-कार्य” आदि विभाजन इसी व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं।

जब एक दलित व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का हिस्सा बनता है — और अपनी भूमिका गरिमापूर्ण ढंग से निभाता है — यह व्यवस्था अस्थिर हो जाती है। “दूसरों की जगह” को भंग होने का भय उत्पन्न होता है।

इसलिए, उस व्यवस्था का एक हिस्सा — जो उपरी जातियों को “स्वाभाविक” अधिकार का दावा देती है — वह प्रतिरोध स्वरूप ऐसी हिंसा को विकल्प मानती है। यह सिर्फ अपमान नहीं; यह स्व-उच्चता की रक्षा का प्रतिकार है।


“स्वतंत्रता विरोधी” मिथक और बहस

कुछ लोग कह सकते हैं: “भले ही वह गलत है, लेकिन वह न्यायाधीश ने भड़का दिया।” इस तर्क की निंदनीयता को हम यहाँ स्पष्ट करना चाहेंगे:

  1. किसी भी न्यायाधीश को सार्वजनिक आलोचना के दायरे में होना चाहिए, लेकिन वह आलोचना—विवादात्मक, न्यायालयीन समीक्षा—नीति और विधि के आधार पर होनी चाहिए, न कि ज़ुल्म और हिंसा पर।

  2. घृणा और जाति-प्रेरित अपमान को ‘प्रतिक्रिया’ कह देना इस असमानता की मान्यता देना है। यह कहने जैसा है कि “हमारे पूर्वग्रहों को आप भड़काते हो।”

  3. यदि “घृणा” को “प्रतिक्रिया” कहा जाए, तो वह व्यवस्था को अपवाद का वर्चस्व बना लेती है — यानी अनियमित लेकिन संभावित हिंसा को स्वीकार्य बना देती है।

  4. और सबसे महत्वपूर्ण: व्यक्ति की जाति या सामाजिक स्थिति न्यायालयीन कार्य क्षमता या नैतिकता से भिन्न होती है। किसी को न्यायाधीश बनने से पहले जाति-पूर्वाग्रहकों की “अनुरूक्ति” स्वीकार नहीं करनी चाहिए।


इस घटना के निहित संदेश: समकालीन भारत की चुनौतियाँ

सामाजिक सापेक्षता और असुरक्षा

भारत में सामाजिक असमानताएँ इतने सघन पन्नों पर बसी हैं कि एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भी इनसे ऊपर नहीं माना जाता। अगर कोई न्यायाधीश दलित हो, तो वह सबसे ज़्यादा लक्ष्य बनता है।

यह घटना दिखाती है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता न केवल दृष्टिकोण की समस्या है, बल्कि सामाजिक नियंत्रण उपकरण है: अगर कोई “अनधिकृत” व्यक्ति सत्ता की ऊँचाई पर पहुँचता है, तो उसे ध्वस्त करने का प्रयास होगा — प्रतीकात्मक या वास्तविक।

संवैधानिक संस्थाओं पर हमला

यह घटना केवल एक न्यायाधीश पर हमले का मामला नहीं है; यह न्यायपालिका, संविधान, समता के मूल्यों पर हमला है। जब कोई व्यक्ति कानून को छोटे दर्जे का समझता है — कि उसका अपमान संभव है — तो वह लोकतंत्र की नींव को ही नकार देता है।

इतना ही नहीं: यदि समाज “अन्याय” की मान्यता नहीं दे सकता, तो वह अपने ही न्यायालयों को चुनौती देता है। यह एक सियासी और सामाजिक असहमति नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक संकट है।

बहुसंख्यक तर्क और सामाजिक हिंसा

ब्राह्मणवादी समूह अक्सर बहुसंख्यक होने का “न्याय” तर्क देते हैं — “हम ही अधिकांश हैं, हमारी संस्कृति, हमारी धारणाएँ, हमारी नैतिक सीमाएँ”। इस दर्शन में, जो बहुसंख्यक नहीं है, वह हाशिए पर है और उस पर हिंसा करना स्वीकार्य।

इस तर्क का परिणाम यह हुआ कि, एक न्यायाधीश पर जूता फेंका जा सकता है — और उसे “संवेदनाओं का ठेस” कहा जा सकता है — जबकि तर्क, विवेचना, संवाद नहीं स्वीकार्य ठहराए जाते।

यह वही तर्क है जो “अपराधी जनता”, “कानून से ऊपर”, “भीड़ का न्याय” — इन सभी को जन्म देता है। और जब यह तर्क एक न्यायालयीन भवन तक पहुंच जाता है, तो वह संविधान की आत्मा पर वार करता है।


प्रतिकार की जिम्मेदारी: प्रतिक्रिया और संरचनात्मक सुधार

इस घटना ने हमें यह दिखाया कि आलोचना और प्रतिकार के बीच की अन्तर रेखाएँ कितनी पतली हैं। हमें निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करना चाहिए:

  1. कानूनी कार्रवाई और निष्कर्ष
    दोषी को उचित और त्वरित कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत दंडित करना चाहिए। केवल निंदा करना ही नहीं, बल्कि उदाहरण पेश करना चाहिए — कि ऐसी हिंसा समाज द्वारा बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

  2. न्यायपालिका की सुरक्षा और सम्मान
    न्यायालयीन सुरक्षा को और अधिक सुदृढ़ करना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुरक्षा व्यवस्था स्वतंत्रता और पारदर्शिता को दबाए नहीं। अदालतों को यह संदेश देना चाहिए कि उनकी गरिमा को नकारना अपराध है, न कि विवाद का विषय।

  3. शिक्षा और चेतना परिवर्तन
    ब्राह्मणवादी और जातिवादी विचारधाराओं को चुनौती देना चाहिए — स्कूलों, विश्वविद्यालयों, मीडिया और सामाजिक मंचों पर। समाज को यह सम्मान सार्वभौमिक होना चाहिए — न कि जातिगत आधार पर।

  4. अल्पसंख्यकों और दलितों के लिए सशक्तरण
    संरचनात्मक सुधारों (शिक्षा, न्याय, समान अवसर) को और तेज़ करना चाहिए, ताकि समाज में “हाशिए” न बनें। यदि वह वर्ग स्वतन्त्र, मजबूत और समर्थ होगा, तो उसकी तुलना में निहित तंत्रों की शक्ति कमजोर पड़ जाएंगी।

  5. संवाद की संस्कृति और मर्यादा की रक्षा
    आलोचना हो सकती है — यह लोकतंत्र का हिस्सा है — लेकिन वह संवाद, तर्क और कानून के दायरे में होनी चाहिए। सार्वजनिक मंचों पर हिंसा और अपमान को समाज को स्वीकार नहीं करना चाहिए।


निष्कर्ष: चेतना की लड़ाई

बी. आर. गवई पर जूता फेंके जाने की घटना सिर्फ एक “स्कैंडल” नहीं है — यह हमारी सामाजिक ख amputations को उजागर करती है। यह दिखाती है कि ब्राह्मणवादी जातिवाद अभी मरा नहीं है; वह छुपा नहीं, विकसित हुआ है।

यह दावा करना कि “यह एक व्यक्ति की हरकत थी” दोषमुक्ति है — वह चक्र काटना है, वह मूल को नहीं देखना है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि संविधान और न्यायपालिका तब तक जीवित नहीं रह सकेंगे, जब तक समाज का एक बड़ा हिस्सा उन मूल्यों का सम्मान नहीं करता जो उन्होंने प्रतिरक्षा करने का प्रयास किया है।

हमें केवल उस अधिवक्ता को निंदा करने भर से काम नहीं चलेगा। हमें उस मानसिकता, उस इतिहास, उस शक्ति संरचना को रद्द करना होगा, जिसने उसे इतना संवेदनशील, इतना गर्वीला, इतना प्रतिकारक बना दिया कि वह सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही में जूता फेंकने को स्वीकार्य समझ सके।

जब तक सामाजिक चेतना परिवर्तन नहीं होगा, जब तक हम जाति-प्रेरित विभाजन और हिंसा को “समझने योग्य आक्रोश” कहकर नैतिक अपराध को सामान्य नहीं करेंगे, तब तक भारत अधूरा रहेगा — न्याय अधूरा रहेगा।

आज नहीं तो कल; यह संघर्ष इसी सोसाइटी में, इसी भाषा में, हमारी जड़ से लड़ना होगा — वहाँ तक जहाँ कोई व्यक्ति यह सोच न सके कि वह समाज के किसी “अधिकार से ऊपर” है।

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Sunday, 14 September 2025

कॉलेजियम सिस्टम और ब्राह्मण वर्चस्व

उच्च न्यायपालिका में ब्राह्मण वर्चस्व और कॉलेजियम सिस्टम: Indian Judicial Service की अनिवार्यता

भारत का संविधान हमें समानता, सामाजिक न्याय और अवसरों की निष्पक्षता का वादा करता है। लेकिन यह वादा तब खोखला लगता है जब हम देश की उच्च न्यायपालिका—यानी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय—की संरचना को देखते हैं। आज, भारत की सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं में से एक, न्यायपालिका, खुद एक सीमित सामाजिक वर्ग—मुख्यतः ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियों—के वर्चस्व में दिखाई देती है।

यह वर्चस्व किसी परीक्षा, प्रतिस्पर्धा या पारदर्शी चयन प्रक्रिया के माध्यम से स्थापित नहीं हुआ है, बल्कि इसका आधार है कॉलेजियम सिस्टम—एक अपारदर्शी और आत्म-नियुक्त प्रणाली जो जजों द्वारा ही जजों की नियुक्ति करती है।

इस लेख में हम कॉलेजियम प्रणाली के जातिगत और सामाजिक पक्षपात पर चर्चा करेंगे, साथ ही यह प्रस्ताव रखेंगे कि इसका एकमात्र प्रभावी समाधान है—Indian Judicial Service (IJS) का गठन, जो न्यायपालिका में विविधता, समावेशिता और जवाबदेही सुनिश्चित कर सके।


⚖️ कॉलेजियम सिस्टम: एक अपारदर्शी और आत्मकेंद्रित ढाँचा

कॉलेजियम सिस्टम भारत की उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों की वह प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम जज मिलकर यह तय करते हैं कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में कौन जज बनेगा। इस प्रक्रिया में न तो कोई प्रतियोगी परीक्षा होती है, न ही कोई आरक्षण नीति, और न ही सामाजिक प्रतिनिधित्व की गारंटी।

नतीजा यह है कि यह प्रणाली सामाजिक रूप से एक सीमित और उच्च जातीय वर्ग को लगातार पुनरुत्पादित करती है, जिसमें ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियाँ अत्यधिक मात्रा में दिखाई देती हैं।

यह वह प्रणाली है जो योग्यता (Merit) के नाम पर समाज के बहुसंख्यक तबकों—जैसे दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम—को दरकिनार कर देती है।


📊 उच्च न्यायपालिका में जातिगत असमानता: तथ्य क्या कहते हैं?

भारत की कुल जनसंख्या में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी लगभग 4-5% मानी जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में इनका प्रतिनिधित्व 50% से भी अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार:

  • 1950 से 2023 तक सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कुल जजों में से 70% से अधिक उच्च जातियों से थे।

  • उच्च न्यायालयों में भी 80-85% जज ब्राह्मण, कायस्थ, भूमिहार, बनिया और अन्य अगड़ी जातियों से आते हैं।

  • दलित और आदिवासी समुदायों से आए हुए जजों की संख्या नगण्य है। जिन एक-दो को जगह दी गई है, उन्हें "प्रतीकात्मक प्रतिनिधि" बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।

इसी के बरअक्स, प्रांतीय न्यायिक सेवा—PCS(J)—में प्रवेश परीक्षा, आरक्षण और चयन की पारदर्शिता के कारण OBC, SC, ST और अल्पसंख्यक वर्गों से बड़ी संख्या में न्यायिक अधिकारी आते हैं। लेकिन ये अधिकारी उच्च न्यायपालिका में लगभग कभी नहीं पहुँच पाते।


🧠 'मेरिट' बनाम 'सामाजिक न्याय': एक वैचारिक भ्रम

जब भी न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो 'मेरिट' का नाम लेकर आरक्षण या समावेशिता की मांगों को खारिज कर दिया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि 'मेरिट' की परिभाषा कौन तय करता है?

क्या सामाजिक संघर्षों से निकलकर, सीमित संसाधनों में पढ़ाई करके, न्यायिक सेवा की परीक्षा पास करने वाले दलित-पिछड़े युवा कम योग्य हैं?

या वे योग्य हैं, जो अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेंट स्कूलों और लॉ कॉलेजों से आकर अपने संपर्कों के बल पर सीधे उच्च न्यायपालिका में नियुक्त हो जाते हैं?

दरअसल, 'मेरिट' को एक जातिगत औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे ब्राह्मणिक वर्चस्व को वैधता दी जा सके और सामाजिक न्याय की माँगों को 'कम योग्यता' का बहाना देकर खारिज किया जा सके।


🛠️ समाधान: Indian Judicial Service (IJS) का गठन

इस गहरे और संस्थागत जातिगत पक्षपात का स्थायी समाधान केवल प्रतीकात्मक नियुक्तियों या कॉलेजियम में मामूली सुधारों से नहीं निकल सकता। इसके लिए कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर, Indian Judicial Service (IJS) नाम की एक नई अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन जरूरी है।

🔹 1. IJS क्या होगी?

  • IJS को IAS और IPS की तरह एक अखिल भारतीय सेवा के रूप में स्थापित किया जाए।

  • इसकी भर्ती UPSC के माध्यम से प्रतियोगी परीक्षा द्वारा हो।

  • इसमें आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह लागू हो, जैसे अन्य केंद्रीय सेवाओं में होता है।

  • परीक्षा में विधि, संविधान, सामाजिक न्याय, न्यायिक नैतिकता आदि विषय शामिल हों।

🔹 2. IJS अधिकारियों की भूमिका

  • चयनित IJS अधिकारी सीधे उच्च न्यायालयों में नियुक्त किए जाएँ।

  • प्रारंभिक वर्षों में वे अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में कार्य करें, फिर वरिष्ठता और प्रदर्शन के आधार पर स्थायी जज बनें।

  • सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियाँ इन्हीं वरिष्ठ IJS अधिकारियों से डेप्युटेशन के आधार पर की जाएँ।

🔹 3. प्रांतीय न्यायिक सेवा से समन्वय

  • PCS-J (प्रांतीय न्यायिक सेवा) से योग्य, अनुभवी न्यायिक अधिकारियों को प्रमोशन के माध्यम से IJS में लाया जाए।

  • यह नीचे से ऊपर तक की न्यायिक सीढ़ी को स्पष्ट और पारदर्शी बनाएगा।

🔹 4. सामाजिक प्रतिनिधित्व का संस्थागत ढांचा

  • SC, ST, OBC, EWS और महिलाओं के लिए संवैधानिक आरक्षण लागू हो।

  • क्षेत्रीय और भाषाई विविधता को भी चयन मानकों में शामिल किया जाए।

  • अल्पसंख्यकों के लिए संरक्षित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था पर विचार किया जाए।

🔹 5. निगरानी और जवाबदेही

  • एक राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग (NJSA) की स्थापना की जाए, जो नियुक्तियों, पदोन्नति, शिकायतों और निगरानी की भूमिका निभाए।

  • इस आयोग में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, विधिक विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता, महिला प्रतिनिधि और समाजशास्त्री शामिल हों।


🎯 इससे क्या बदलाव आएँगे?

क्षेत्रकॉलेजियम सिस्टमIndian Judicial Service
नियुक्ति प्रक्रियाअपारदर्शी, सिफारिश आधारितपारदर्शी, परीक्षा आधारित
सामाजिक प्रतिनिधित्वअत्यंत सीमितसंविधान सम्मत आरक्षण
जवाबदेहीनहीं के बराबरNJSA के अधीन
वर्गीय संतुलनउच्च जातीय वर्चस्वसमावेशी और विविधतापूर्ण
मेरिट का आधारसंपर्क और पृष्ठभूमिनिष्पक्ष परीक्षा और अनुभव

🧾 निष्कर्ष

भारत की उच्च न्यायपालिका में व्याप्त जातिगत असमानता और ब्राह्मण वर्चस्व कोई संयोग नहीं, बल्कि कॉलेजियम सिस्टम जैसी संरचनात्मक व्यवस्था का परिणाम है। जब तक यह प्रणाली कायम है, तब तक न्यायपालिका केवल एक सामाजिक वर्ग की बपौती बनी रहेगी।

इसलिए अब समय आ गया है कि कॉलेजियम सिस्टम को समाप्त कर, संविधान और सामाजिक न्याय के मूल्यों के अनुरूप Indian Judicial Service (IJS) की स्थापना की जाए। यह न केवल सामाजिक रूप से वंचित समुदायों को प्रतिनिधित्व देगा, बल्कि देश की न्यायिक प्रणाली को जवाबदेह, पारदर्शी और लोकतांत्रिक भी बनाएगा।

जिनके लिए संविधान बना, वे संविधान की व्याख्या करने वाली कुर्सियों तक भी पहुँचें—यह केवल आवश्यकता नहीं, लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्यता है।

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संघ, शिवाजी और ब्राह्मण वर्चस्व

संघ, शिवाजी और ब्राह्मण वर्चस्व: इतिहास की पुनर्रचना या सत्ता का केंद्रीकरण?

संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) वर्षों से यह दावा करती रही हैं कि वे छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे राष्ट्रनायक को सम्मान देती हैं, उन्हें “हिंदू स्वराज्य” के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य, जहाँ मराठा नेतृत्व ऐतिहासिक रूप से प्रभावशाली रहा है, वहाँ आज सत्ता की कमान एक ऐसे वर्ग के हाथों में है, जो न केवल अल्पसंख्यक है बल्कि ऐतिहासिक रूप से मराठा समाज के साथ संघर्षरत भी रहा है — ब्राह्मण वर्ग।

महाराष्ट्र में मराठा राजनीति का लगातार पतन, राजस्थान में राजपूत नेतृत्व की उपेक्षा, और इन दोनों ही राज्यों में ब्राह्मण नेताओं को थोपे जाने की राजनीति ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है: क्या संघ “हिंदू एकता” के नाम पर दरअसल एक ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना को राष्ट्रव्यापी स्तर पर मजबूत कर रहा है?


शिवाजी और मराठा विरासत की राजनीति

छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के उन चंद नायकों में से हैं, जिनकी छवि लगभग हर विचारधारा ने अपनाई है। कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रवादी योद्धा कहा, सोशलिस्टों ने उन्हें किसानों का हितैषी बताया और संघ ने उन्हें “हिंदू राष्ट्र” के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया।

लेकिन क्या संघ वास्तव में शिवाजी की उस राजनीतिक विरासत को स्वीकार करता है जो सामाजिक न्याय, स्वराज्य और क्षेत्रीय आत्मनिर्भरता पर आधारित थी? शिवाजी न केवल एक योद्धा थे, बल्कि उन्होंने उस समय की जातीय वर्चस्ववादी सोच को चुनौती दी थी। उन्होंने अपने प्रशासन में सभी जातियों को स्थान दिया, अपने नौसेनाध्यक्ष डेसाई कोल्हाटकर जैसे गैर-ब्राह्मण नेताओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया। यह संघ के “एक संस्कृति, एक राष्ट्र” वाले विमर्श से मेल नहीं खाता।


पेशवा बनाम छत्रपति: सत्ता का ऐतिहासिक संघर्ष

शिवाजी के उत्तराधिकार में पेशवाओं का उदय एक निर्णायक मोड़ था। यह बात ऐतिहासिक रूप से दर्ज है कि पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य की वास्तविक सत्ता धीरे-धीरे छत्रपति से छीनकर अपने हाथों में केंद्रित की। पेशवा — जो मूलतः ब्राह्मण थे — उन्होंने शासन व्यवस्था को अत्यधिक केंद्रीकृत और जातिवादी बना दिया।

छत्रपति शिवाजी के वंशज नाम मात्र के राजा रह गए और सत्ता का पूरा नियंत्रण ब्राह्मण पेशवाओं के हाथों चला गया। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम वर्तमान महाराष्ट्र की राजनीति से मेल खाता प्रतीत होता है, जहाँ भाजपा और संघ ने एक ओर शिवाजी को ‘आइकन’ के रूप में प्रचारित किया, वहीं दूसरी ओर मराठा नेतृत्व को राजनीतिक रूप से किनारे लगा दिया गया।


महाराष्ट्र में मराठा राजनीति का पतन

1990 के दशक तक महाराष्ट्र की राजनीति शरद पवार जैसे मराठा नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती थी। कांग्रेस और बाद में एनसीपी, दोनों में मराठा नेतृत्व प्रमुख था। लेकिन 2014 के बाद भाजपा के उदय के साथ ही मराठा नेतृत्व को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया गया।

फडणवीस जैसे ब्राह्मण नेता को मुख्यमंत्री बनाना, वह भी तब जब उनकी पार्टी में उनसे कहीं अधिक अनुभवी और जनाधार वाले मराठा नेता मौजूद थे, एक स्पष्ट संकेत था — सत्ता अब क्षेत्रीय और जातीय संतुलन से नहीं, बल्कि संघ के एजेंडे से तय होगी। उद्धव ठाकरे के साथ हुआ व्यवहार, और अंततः एकनाथ शिंदे जैसे “मराठा चेहरे” का उपयोग कर सत्ता को ब्राह्मण नियंत्रण में बनाए रखना — यह सब संकेत करते हैं कि महाराष्ट्र में मराठा नेतृत्व अब केवल प्रतीकात्मक है।


मराठा बनाम राजपूत: फर्जी ऐतिहासिक टकराव की राजनीति

इतिहास में मराठा और राजपूतों के बीच कुछ संघर्ष जरूर रहे हैं, लेकिन वर्तमान में ना तो उनकी बसावट का क्षेत्र समान है ना ही कोई अन्य सामाजिक संघर्ष का कारण। लेकिन संघ द्वारा राजपूत क्षेत्र (उत्तर भारत) में लगातार मराठा आइकन थोपे जाना, पेशवाई के टाइम लूट मार करने वालों को धर्म रक्षक बताना और राजपूतों को गद्दार, मुगलपूत आदि बताने का कुत्सित प्रयास किया जाता है, जिससे दोनों समुदायों का आपस में बेवजह टकराव होता है। ये सभी रणनीतियाँ सिर्फ एक मकसद की पूर्ति करती हैं — क्षत्रिय और अन्य ओबीसी जातियों के बीच फूट डालना, ताकि ब्राह्मण नेतृत्व को कोई चुनौती ना मिले।


राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन और ब्राह्मण सत्ता का उदय

राजस्थान में भाजपा की राजनीति कभी भैरों सिंह शेखावत जैसे मजबूत राजपूत नेता के इर्द-गिर्द थी। उन्होंने एक मजबूत सामाजिक गठबंधन तैयार किया था, जिसमें ओबीसी, राजपूत, जाट और दलित समुदायों की भागीदारी थी। परन्तु हाल ही में राजस्थान में भाजपा ने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया, जो पहली बार विधायक बना और ब्राह्मण वर्ग से आता है — यह वही मॉडल है जो महाराष्ट्र में फडणवीस के साथ अपनाया गया था।

इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि भाजपा और संघ अब राज्यों में जनाधार या अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि “सामाजिक नियंत्रण” के आधार पर नेतृत्व तय कर रहे हैं। यह सामाजिक नियंत्रण ब्राह्मण नेतृत्व के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो एक ओर हिन्दू एकता की बात करता है, और दूसरी ओर जातीय समीकरणों को इस तरह से तोड़ता है कि वर्चस्व बना रहे।


संघ की रणनीति: ‘हिंदू एकता’ के नाम पर सामाजिक असमानता की पुनर्स्थापना?

संघ का मूल विचार हिन्दू समाज को संगठित करना है, लेकिन यह संगठन किसके नेतृत्व में होगा, यह सवाल आज अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। क्या यह नेतृत्व बराबरी और समावेशिता पर आधारित होगा, या फिर एक विशेष जाति के वर्चस्व पर?

मौजूदा घटनाक्रम इस बात की पुष्टि करते हैं कि संघ हिन्दू समाज को संगठित तो करना चाहता है, लेकिन उस संगठन की बागडोर ब्राह्मण नेतृत्व के हाथों में ही रखना चाहता है। यही कारण है कि वह शिवाजी की मूर्ति तो लगवाता है, लेकिन शिवाजी की शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय और आत्मनिर्भरता की बात नहीं करता।


निष्कर्ष: क्या यह पुनः पेशवाई की वापसी है?

महाराष्ट्र और राजस्थान की राजनीति आज जिस दिशा में जा रही है, वह एक प्रकार की “नई पेशवाई” की ओर संकेत करती है — जहाँ सत्ता का संचालन वास्तविक जनाधार या जनप्रतिनिधित्व से नहीं, बल्कि वैचारिक और जातीय वर्चस्व के आधार पर किया जा रहा है।

संघ यदि सच में शिवाजी को सम्मान देना चाहता है, तो उसे उनकी नीति और शासन के मूल तत्वों को अपनाना होगा — जिसमें समावेशिता, सामाजिक न्याय, और हर वर्ग को समान अवसर देना शामिल है। केवल मूर्तियाँ बनवाकर, जयंतियाँ मनाकर या पाठ्यपुस्तकों में नाम शामिल कर देने से शिवाजी का सम्मान नहीं होता। सम्मान तब होता है जब उनके विचारों को जमीन पर उतारा जाए।

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राष्ट्रीय स्वार्थी संघ का दोगलापन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दोगलापन: राष्ट्रवाद और संस्कृति के नाम पर दोहरा मापदंड

भारत में जब भी राष्ट्रवाद, संस्कृति या नैतिकता की बात होती है, तो एक नाम स्वतः ही चर्चा में आ जाता है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाला संघ, दरअसल भारतीय राजनीति और समाज को नियंत्रित करने वाला सबसे शक्तिशाली वैचारिक केंद्र बन चुका है। इसके अनुशांगिक संगठनों में भाजपा, विहिप, बजरंग दल आदि शामिल हैं, जो अक्सर राष्ट्रवाद, लव जिहाद, भारतीय संस्कृति, संस्कारों और नैतिक मूल्यों पर उपदेश देते हैं। लेकिन जब इन मूल्यों की परीक्षा खुद संघ और इसके लोगों पर आती है, तो दोगलापन साफ नजर आता है।

1. फर्जी राष्ट्रवाद और क्रिकेट की राजनीति

भारत-पाकिस्तान के बीच हुए हर आतंकी हमले के बाद एक बात हमेशा सुनने को मिलती है: "हम पाकिस्तान से क्रिकेट क्यों खेलें?" यही बात संघ के विचारकों, भाजपा नेताओं और टीवी डिबेट्स में दिन-रात दोहराई जाती रही है। लेकिन इस बार, जब जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में सेना के जवानों पर आतंकी हमला हुआ, जिसमें कई जवान शहीद हुए, तो मात्र कुछ दिनों के बाद ही भारत ने पाकिस्तान के साथ एशिया कप में मैच खेला।

यहाँ सवाल उठता है – क्या पाकिस्तान से क्रिकेट खेलना अब राष्ट्रवाद नहीं है?

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (ICC) के प्रमुख कौन हैं? जय शाह – गृहमंत्री अमित शाह के पुत्र और BCCI के सचिव। यानी भारतीय क्रिकेट की नीति-निर्माण प्रक्रिया उन्हीं के हाथ में है, जो सरकार का हिस्सा हैं। अगर सरकार चाहे, तो भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित करने वाला कोई भी कदम उठा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके उलट, जब इसी मुद्दे पर सवाल उठाए गए, तो संघ के विचारक और राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा टीवी डिबेट में मुस्कराकर टालने की कोशिश करते हैं।

कल्पना कीजिए, अगर यही घटना कांग्रेस शासन में होती, और राहुल गांधी ICC के प्रमुख होते, तो संघ और भाजपा के नेता पूरे देश में हंगामा मचा देते। “देशद्रोही,” “गद्दार,” “टुकड़े-टुकड़े गैंग” जैसे जुमले गूंजने लगते।

यह है संघ का फर्जी राष्ट्रवाद – जहाँ राष्ट्रवाद का उपयोग केवल राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है, और जब बात अपने लोगों की आती है तो सारे आदर्श ताक पर रख दिए जाते हैं।


2. ‘संस्कार’ का दिखावा और नेताओं की पारिवारिक तस्वीरें

संघ अपने स्वयंसेवकों को "संस्कार," "मर्यादा" और "भारतीय संस्कृति" का पाठ पढ़ाता है। टीवी चैनलों पर संघ समर्थक और विचारक अक्सर यह कहते हैं कि "पश्चिमी संस्कृति ने हमारी युवा पीढ़ी को बिगाड़ दिया है।" खासकर जब बात महिलाओं के पहनावे की आती है, तो संघ के वैचारिक संगठन जैसे बजरंग दल युवाओं को पीटते नजर आते हैं – चाहे वो वेलेंटाइन डे पर पार्क में बैठे जोड़े हों या कॉलेज के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती छात्राएं।

लेकिन इसी संघ-प्रेरित भाजपा के महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की पत्नी अमृता फड़नवीस का व्यवहार इस कथित संस्कृति से मेल नहीं खाता।

  • अमृता फड़नवीस स्किन-टाइट ड्रेसों में फैशन शो और पेज-3 पार्टियों में शिरकत करती हैं।

  • इंस्टाग्राम पर वह रील्स बनाती हैं, जिनमें कभी इन्फ्लुएंसर रियाज अली जैसे युवाओं के साथ ठुमके लगाए जाते हैं, तो कभी गानों पर लिप-सिंक किया जाता है।

  • सीएम आवास जैसे एक सरकारी और प्रतिष्ठित स्थान को ‘रील स्टूडियो’ में बदल देना – क्या यही “भारतीय संस्कार” हैं?

अब सवाल यह है – अगर यही काम किसी कांग्रेस नेता की पत्नी करती, तो क्या संघ और बजरंग दल की प्रतिक्रिया इतनी ही शांत होती?

कथित “लव जिहाद” पर उपदेश देने वाले संगठन, जो पार्कों में प्रेमी जोड़ों को पीटते हैं, वे अमृता फड़नवीस के इंस्टाग्राम पर चुप क्यों हैं? क्या स्किन टाइट कपड़े केवल तब अश्लील होते हैं जब उन्हें कोई आम लड़की पहनती है, और अगर कोई भाजपा नेता की पत्नी वही पहनती है तो वह "मॉडर्न" हो जाती है?

यह दोगलापन एक बहुत बड़े सवाल को जन्म देता है – क्या संघ के संस्कार सिर्फ आम जनता के लिए हैं, और नेताओं के परिवार इसके बाहर हैं?


संघ का दोहरा चेहरा: विचारधारा या अवसरवाद?

संघ और उसके संगठनों की राजनीति विचारधारा से कम और राजनीतिक अवसरवादिता से अधिक संचालित होती है। जब किसी मसले को उछालकर वोट बटोरे जा सकते हैं, तो वह "संस्कृति की रक्षा" बन जाता है। लेकिन जब वही काम अपने ही लोग करते हैं, तो सब चुप्पी साध लेते हैं।

  • जब दीपिका पादुकोण ‘पठान’ में भगवा बिकिनी पहनती है, तो पूरे देश में विरोध होता है।

  • लेकिन जब कंगना रनौत उसी रंग में फोटोशूट करवाती हैं, तो वह "संस्कृति की रक्षक" बन जाती है।

यही मापदंड RSS की विचारधारा को संदिग्ध बनाते हैं। इसका "हिंदू राष्ट्र" का सपना उस समय बेमानी हो जाता है, जब राष्ट्रवाद और संस्कृति के मुद्दों को केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रयोग किया जाता है।


लोकतंत्र में जवाबदेही जरूरी है

हर संगठन को अपनी विचारधारा रखने का हक है, लेकिन जब वह विचारधारा दोहरे मापदंडों पर खड़ी हो, तो उसका विरोध होना भी जरूरी है। संघ अगर सच में राष्ट्रवाद और संस्कृति की रक्षा करना चाहता है, तो उसे पहले अपने भीतर झांकना होगा।

  • जय शाह के जरिए क्रिकेट की राजनीति और पाकिस्तान से मैच – राष्ट्रवाद या परिवारवाद?

  • अमृता फड़नवीस की गतिविधियाँ – संस्कार या पाखंड?

  • प्रेमी जोड़ों पर हमले – संस्कृति की रक्षा या गुंडागर्दी?

जब तक इन सवालों के जवाब नहीं दिए जाते, तब तक RSS की विचारधारा सिर्फ एक ढकोसला ही नजर आएगी।


निष्कर्ष: सत्य से भागना बंद कीजिए

संघ को यह समझना होगा कि 21वीं सदी का भारत अब आँख मूंदकर किसी की बातों पर यकीन नहीं करता। सोशल मीडिया के जमाने में हर दोहरा मापदंड जनता के सामने उजागर होता है। आप चाहे जितना भी राष्ट्रवाद का नकाब पहनें, जब आपके ही लोग उसकी धज्जियाँ उड़ाते हैं, तो आपकी वैचारिक साख खत्म हो जाती है।

इसलिए, या तो अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहिए – चाहे वो कोई भी हो – या फिर ये दोगलापन छोड़ दीजिए। नहीं तो इतिहास आपको पाखंडी कहकर याद रखेगा।

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